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मध्यप्रदेश की नैसर्गिक विरासत है जनजातीय संस्कृति

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जनजातीय आबादी के मान से देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है।सच कहें तो यह संस्कृति इस प्रदेश की नैसर्गिक विरासत है,जिसमें निश्छल जीवन का आह्लाद और संघर्ष प्रतिबिंबित हैं।जनजातीय जीवनशैली में आलोकित आनंद समूचे प्रदेश की ऊर्जा और उसका दैनंदिन संघर्ष सभी प्रदेशवासियों की प्रेरणा है।

संस्कृति‘ शब्द अपने व्यक्तित्व की समग्रता में एक व्यापक अर्थबोध के साथ परिदृश्य में उपस्थित है।यह शब्द किसी एक व्यक्ति की नहींबल्कि समुदाय अथवा समाज की जीवनशैली,खानपानपरिधान,रहनसहन,मान्यतापरंपरालोकविश्वास,धार्मिक आस्था,अनुष्ठानपर्वत्योहार,सामाजिक व्यवहारनियमबंधनसंस्कारआजीविका के उद्यम आदि की विशेषताओं को प्रकट और रेखांकित करता है।इस पारिभाषिक स्थापना को जनजातीय संस्कृति के माध्यम से समझा जा सकता है।

भौगोलिक दृष्टि से देश के केन्द्र में स्थित होने के कारण मध्यप्रदेश की सीमाएँ उत्तर प्रदेश,राजस्थान,गुजरात,महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ राज्यों को छूती हैं। पड़ोसी राज्यों से सांस्कृतिक समरसता के कारण उनके सबसे अधिक रंग मध्यप्रदेश के  जनजातीय क्षेत्रों में बिखरे हैं।इसलिये इस प्रदेश की जनजातीय संस्कृति सप्तवर्णी इन्द्रधनुषी छटाओं से सुसज्जित है।

अगर आपने कभी किसी जनजातीय क्षेत्र का प्रवास किया हो,वहाँ कुछ दिन ठहरने का अवसर मिला हो,या फिर आप किसी जनजाति बहुल गाँव के निवासी होंतो आपकी स्मृति में यह मोहक दृश्य अवश्य अंकित होगा ढोल की गमक के साथ निनादित मादल का उल्लासटिमकीठिसकीचुटकुलोंकुंडीघंटी या थाली की संगत में दिशाओं को गुँजाती बाँसुरी की स्वरलहरियाँ….पाँवों में हवा के घुँघरू बाँधकर नृत्यभंगिमाओं के साथ वृक्षों से लिपटतीं विभोर लताएँ….जंगलपर्वतनदीझरनों का सम्मोहक संसार….रहस्यमय घाटियों से क्षितिज तक जाती टेढ़ीमेढ़ी अनगढ़ पगडंडियाँ और इन सबके बीच धड़कता जनजातियों का संघर्षमय पर बिंदास जीवन।

मध्यप्रदेश के अधिकांश जनजाति समुदाय प्रायवनों के निकट निवास करते हैं।प्रकृति की रागात्मकता और लीलामुद्राओं से उनका गहरा संबंध है। निसर्ग के लगभग सभी जीवनोपयोगी उपादान उनके आराध्य हैं। वे प्रकृति की छोटी से छोटी शक्ति में सर्वशक्तिमान की छवि पाते हैं। धरतीआकाशसूरजचंद्रमामेघवर्षानदी,पर्वतवृक्षपशुपक्षीसर्पकेकड़ेयहाँ तक कि केंचुआ भी उनकी श्रद्धा का पात्र हैक्योंकि महादेव को धरती के निर्माण के लिये उसी के पेट से मिट्टी मिली थी। पशुपक्षी और वनस्पतियों में से अनेक उनके गोत्रदेवता के रूप में पूज्य तो हैं ही। आस्था का यह निश्छल रूप ही अनुष्ठानों की प्रेरणाभूमि है। पर्वजात्रामेलेमड़ईनृत्यउत्सवगीतसंगीतसब परंपरा के रूप में आदिम आस्था का पीढ़ीदरपीढ़ी संतरण ही है।

भील जनजाति समूह में हरहेलबाब या बाबदेवमइड़ा कसूमरभीलटदेवखालूनदेवसावनमातादशामातासातमातागोंड जनजाति समूह में महादेवपड़ापेन या बड़ादेव,लिंगोपेन,ठाकुरदेवचंडीमाईखैरमाईबैगा जनजाति में बूढ़ादेवबाघदेवभारिया दूल्हादेवनारायणदेवभीमसेन और सहरिया जनजाति में तेजाजी महाराजरामदेवरा आदि की पूजा पारंपरिक रूप से प्रचलित है। पूजाअनुष्ठान में मदिरा और पक्वान्न का भोग लगता है। भीलों के त्योहारों में गोहरीगलगढ़नवईजातरा तोगोंडों में बिदरीबकबंदीहरढिलीनवाखानीजवाराछेरतादिवाली आदि प्रमुख हैं। 

कोदोकुटकीज्वारबाजरासाँवाक्काचनापिसीचावल आदि अनाज जनजाति समुदायों के भोजन में शामिल हैं।महुए का उपयोग खाद्य और मदिरा के लिये किया जाता है।आजीविका के लिये प्रमुख वनोपज के रूप में भी इसका संग्रहण सभी जनजातियाँ करती हैं।बैगा,भारिया और सहरिया जनजातियों के लोगों को वनौषधियों का परंपरागत रूप से विशेष ज्ञान है।बैगा कुछ वर्ष पूर्व तक बेवर खेती करते रहे हैं।

जनजाति समुदायों के लोग अपने मकान प्रायमिट्टीपुआललकड़ीबाँसखाईखपरैलछींद या ताड़ पत्तों का उपयोग कर बनाते हैं। मकान अमूमन 30-35 फुट लंबा और 10-12 फुट चौड़ा होता है। कहींकहीं मकान के बीच में आँगन भी होता है। घर के एक हिस्से में गोशाला भी होती है।बकरियों के लिये बुकड़ कुड़िया‘ भी। मकान का मुख्य द्वार फरिका की नोहडोरा (भित्तिचित्रसे सज्जा की जाती है। सहरिया अपने श्रंखलाबद्ध आवास उल्टे यू‘ आकार का बनाते हैंजो सहराना कहलाता है। भीलों के गाँव फाल्या कहलाते हैं।

जनजातीय महिलाएँ हाथों में चुरिया धारण करती हैं। जुरिया,पटाबहुँटाचुटकीतोड़ापैरीसतुवाहमेलढारझरकातरकीबारी और टिकुसी इनके प्रिय आभूषण हैं। भील स्त्रियाँ मस्तक पर बोर गूँथ कर लाड़ियाँ झुलाती हैं। कथिर के कड़े कोहनी से कलाई तक सजे रहते हैं। नाक में काँटा और कमर में कंदौरा। घुटनों तक कड़े और घुँघरू। जनजातीय पुरुष भी कानगले और हाथों में विभिन्न आभूषण पहनते हैं। गोदना सभी स्त्रियों का प्रिय पारंपरिक अलंकार है।

इतिहास की निरंतरता को बनाये रखने में जनजातीय संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह मानवसभ्यता के विकासक्रम की अनिवार्य कड़ी है। आज़ादी के बाद जनजातीय विकास को नयी दिशा मिली है। विकास के अभिनव और प्रभावी प्रयासों से विभिन्न जनजाति समुदायों के सामाजिकआर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। बस ध्यान यह रखा जाना है कि इन सारे प्रयासों के साथ विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित होते हुए उनकी सांस्कृतिक परंपराओं और मातृभाषाओं में संचित वाचिक संपदा के साथ पारंपरिक ज्ञानकोश न खो जाये।