नई दिल्ली
महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू होने के साथ ही राज्य के सियासी संग्राम का पहला चरण पूरा हो गया है। शिवसेना के जिद पर अड़ने से बीस दिन तक चले घटनाक्रम में उसके हाथ कुछ नहीं लगा है। वह 50-50 के अपने ही फार्मूले में उलझ गई। माना जा रहा है कि शिवसेना ने सत्ता के लिए भाजपा के समक्ष जो मांगें रखी थीं, लगभग वैसी ही शर्तें एनसीपी ने लगा दी हैं।
शिवसेना ने अपने पुराने सहयोगी भाजपा को खो दिया। मगर, सरकार बनाने के लिए फिलहाल नया सहयोगी तैयार नहीं कर पाई। आखिर में केंद्र की ओर से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिए जाने से शिवसेना के मंसूबों पर फिलहाल पानी फिर गया है। शिवसेना की सबसे बड़ी राजनीतिक हार यह है कि वह सहयोगी तलाशकर अपनी सरकार बनाने में नाकाम रही। एनसीपी चाहकर भी शिवसेना के साथ नहीं खड़ी हुई। कारण कई थे। आदित्य ठाकरे उसे मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं थे।
सत्ता में भागीदारी को लेकर जिस तरह की शर्तें शिवसेना ने भाजपा के समक्ष रख रही थीं, करीब-करीब वैसी ही शर्तें एनसीपी ने भी लगा दी। इस पर भी कांग्रेस का समर्थन जरूरी था। कांग्रेस इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं दिख रही। कांग्रेस की तरफ से देरी ने यह भी संकेत दे दिया कि उसे शिवसेना जैसे कट्टर दल को बाहर से समर्थन देना आसानी से रास नहीं आ रहा। अब शिवसेना को भी अहसास हो गया होगा कि उसकी स्वीकार्यता भाजपा के साथ खड़े होने में ज्यादा है।
एनसीपी भी कोई खास सहज *होकर शिवसेना के साथ सरकार बनाने को तैयार हुई हो, ऐसा नहीं लगता है। उसके पास यही तर्क बनता है कि *राज्य में तुरंत दोबारा चुनाव नहीं *होने चाहिए।