राहु के विषय में भाँति-भाँति की धारणाएँ ज्योतिष् और धर्मग्रंथों में वर्णित हैं।अधिकांश वर्णनों में अशुभ विवेचना प्राप्त होती है।राहु पूर्णतः दैहिक और स्वाभाविक रूप से न तो असुर है और न देवता परंतु फिर भी ब्रह्मा जी के द्वारा उन्हे ग्रह मंडल में शामिल कर लिया गया है और अब वे पूजे जाते हैं।उनकी पूजा के बिना नवग्रह पूजा पूर्ण नही होती।
चूँकि राहु एक अंधकार है, भ्रम है,संदेह है इसलिए राहु के प्रभाव में आ जाने पर जातक अक्सर भयभीत हो जाते हैं अथवा किसी संदेह या भ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं।यह बात तो तय है कि राहु जिस किसी भी भाव में हों उस भाव को कुछ विशिष्ट बना देते हैं ।उस भाव संबंधी फलों अथवा परिणामों की जीवन में प्राप्ति,प्राप्ति से संबंधित कार्यप्रणाली और परिश्रम विशेषता रखते हैं।
महर्षि पाराशर द्वारा वर्णित बृहत् पाराशर होराशास्त्र एवं अन्य ज्योतिष् के ग्रंथों में सभी ग्रहों को प्रथक-प्रथक राशियों का स्वामित्व प्रदान किया गया है।केवल राहु एवं केतु के भौतिक अस्तित्व न होने के कारण उन्हे भौतिक गुण -धर्मों के अनुपलब्ध होने से किसी राशि विशेष का स्वामित्व उन्हे नही मिला ।यद्यपि कुछ ग्रंथों में कन्या और वृषभ राशि के साथ राहु का संबंध जोड़ा गया है,लेकिन स्पष्टतः सार्वभौमिक रूप से यह मान्य नही है इतनी बात महर्षि पाराशर ने अवश्य कही हैऔर उससे लगभग सभी मतावलम्बी सहमत भी होते हैं कि राहु जिस किसी राशि अथवा भाव में स्थित होते हैं उसके अनुसार और जिस किसी ग्रह के साथ होते हैं उसके अनुसार परिणाम देते हैं ।यह बात तो ध्यान रखनी ही होगी कि राहु के नैसर्गिक गुण – धर्म साथ में स्थित ग्रह अथवा राशि के साथ किस तरह का संबंध बनाते हैं।समझने के लिए हम यह माने कि राहु एक विषैला प्रभाव है,एक विषैली गैस से ओतप्रोत आभासी वायुमंडल है सामान्यरूप से तो राहु-चंद्र युति सर्वाधिक अनिष्टकारी मानी गयी है जो जातक को पागल की हद तक भ्रमित कर सकती है।
राहु व मंगल की युति दुस्साहसी बना देती है,बिना योजना के शीघ्रता में लिए गये निर्णय कभी ऊँची सफलता ,तो कभी भयंकर विफलता के कारण बनते हैं।
राहु की जन्मकुंडली में उपस्थित सर्वाधिक चिंतनीय होती है।विशिष्टता महर्षि पाराशर जी ने इन्हें राजयोग प्रदाता भी माना है-
राहु यदि जन्मपत्रिका में केंद्रभाव में भावेश के साथ स्थित हों अर्थात राहु केंद्र में जिस राशि में हो उस राशीश के साथ युति भी हो तो अपनी दशा में राजसुख प्रदान करते हैं।
इसी तरह मूल जन्मकुंडली में त्रिकोण भाव में राहु भावाधिपति ग्रह के साथ स्थित हो तो भी राजयोगकारी सिद्ध होते हैं।
अकबर के दरबारी रहीमखानखाना अपनी रचित पुस्तक खेट-कौतुकम् में लग्न में स्थित राहु पर आधारित एक योग का वर्णन करते हैं-
आयुखाने चश्मखोरा मालखाने च मुश्तरी।
राहु जो पैदामखाने शाह होवे मुल्क का।।
..मतलब जिस जातक की जन्मांक में आँठवें भाव में शुक्र दूसरे भाव में गुरु और लग्न में राहु हो तो वह मनुष्य राजा होता है।
महर्षि जैमिनी अपने ग्रंथ जैमिनी सूत्रम् में राजयोगों का जहाँ वर्णन करते हैं वहाँ वे राहु और केतु को भी विशिष्ट महत्व देते हैं।
उनके अनुसार केंद्र व त्रिकोण के स्वामियों की युति,परस्पर दृष्टि ,स्थान परिवर्तन यदि हो तो यह राजयोग बनता है।केंद्र और त्रिकोण भाव अति महत्वपूर्ण होते हैं उनमें केंद्र को यदि देखें तो तो लग्न से अधिक पंचम ,पंचम से अधिक नवम् बलवान होते हैं।इसी तरह केंद्र में चतुर्थ से अधिक सप्तम और सप्तम से अधिक दशम बलवान होते हैं।लग्नभाव सर्वविदित शुभ ही होता है।इन भावों का महत्व इतना अधिक है कि जिन राहु और केतु के नाम से जगत भयभीत रहता है वे राहु-केतु भी केंद्र या त्रिकोण में हों तो योगकारक हो जाते हैं और केंद्र व त्रिकोण में स्थित राहु या केतु का संबंध केन्द्रेश या त्रिकोणेश से भी हो तो उत्तम योग बनता है ।केंद्र व त्रिकोण दोनो भाव योगकारक होते हैं ।दक्षिण भारतीय परंपरा में केंद्र भावों को विष्णु और त्रिकोण भावों को लक्ष्मी की संज्ञा दी गयी है।और पत्रिका में लक्ष्मी और नारायण का संबंध शुभ होता है।त्रिकोण भावों का राहु के साथ संबंध धन- सम्पत्ति की वृद्धि करता है एवं राहु का केंद्र भावों के साथ संबंध पद प्रतिष्ठा बढ़ाता है।